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यह सन् 2006 के आसपास की बात है जब कुछ पैसों के अभाव में श्री ओंकार सिंह, अधिवक्ता अपने बच्चों का दखिला किसी अच्छे स्कूल में नहीं करा पाये थे। कई बार कुछ महीने की फीस जमा न करा पाने पर उनके बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता। तब उन्होंने गरीब बच्चों की शिक्षा में बाधा बनने वाले आर्थिक संकट को गंभीरता से समझा। शुरूआत में उन्होंने झोंपड-पत्ती वाले स्लम एरिया के बच्चों को भी निःशुल्क पढाना शुरू किया। धीरे-धीरे कुछ सहयोगियों की मदद से शिक्षिकाओं तथा पढाने के स्थान का प्रबन्ध किया। इस तरह से ’’भरतपुरिया शिक्षा समिति’’ नामक संस्था का गठन किया गया। यहां आर्थिक रूप से बेहद कमजोर परिवारों के बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। अनेक मित्रों तथा संस्थाओं से आग्रह किया गया कि कुछ बच्चों को स्पोन्सर्स कराया जा सके। यूनिफोर्म, पुस्तकों आदि का प्रबन्ध भी धीरे-धीरे होने लगा।
भरतपुरिया शिक्षा समिति के अन्तर्गत लाल बहादुर शास्त्री बाल विद्यापीठ, नाम से स्कूल पंजीकृत हुआ। लगभग 200-300 बच्चे प्रति वर्ष से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करके निकलने लगे। यहां से पास आउट होने वाले बच्चों के लिए नौवीं कक्षा से आगे की पढाई जारी रखने हेतु उन्हें सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाया गया। यहां से जाने पर भी, उनकी सुचारू पढाई के लिए आर्थिक सहायता जारी रखने के प्रबन्ध भी किये गये। अनुमानतः 5000 से अधिक बच्चे लडके-लडकियां एल.बी.एस.विद्यापीठ से निकल कर, अच्छे मुकाम हासिल कर चुके हैं।
शुरू में यहां शिक्षा को निःशुल्क ही रखा गया, किन्तु जब पाया कि बिना फीस की शिक्षा को उनके माता-पिता गंभीरता से नहीं लेते-तब 10-15 रूपये मासिक जैसी प्रतीकात्मक फीस को जोडा गया। इसके परिणाम ज्यादा सुखद आए। अभिभावकों में भी यह अहसास पैदा हुआ कि ज बवे फीस दे रहे हैं तो बच्चों को रोजाना स्कूल जाना चाहिए। इसके सुखद नतीजे भी सामने आने लगा। अच्छे शिक्षक-शिक्षिकाओं की व्यवस्था होने लगी। बच्चे भोजन के आकर्षण से भी नियमित आने लगे तथा कम्प्यूटर प्रयोगशाला जैसी नई सुविधाएं भी जोडी गयी।
शिक्षा की इस उडान के साथ ही यह भी महसूस किय गया कि हमारे समाज में बहुत से ऐसे लावारिस व अनाथ बच्चे हैं, जिन्हें शिक्षा तो क्या, रोटी भी नसीब भी नहीं होती। तब श्री ओंकार सिंह अनाथ बच्चों की परवरिश तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा का बीडा भीै उठाया। तब ’’भरतपुरिया शिक्षा समिति’’ के स्वामित्व में ही ’’लाल बहादुर शास्त्री बाल आश्रम की स्थापना की गई। पुलिस व प्रशासन की सहायता से भी अनेक लावारिस-अनाथ बच्चे यहां लाए जाने लगे। ऐसे बच्चों को संभालना सरल कार्य नहीं था। एक तो ये बच्चे किशोरावस्था के थे तथा कुछ ऐसे भी थे, जो वर्षाें से बंधुआ बाल श्रमिक रहे या अनेक प्रकार के व्यसनों में लिप्त रहे थे। कुछ घर से भाग आते थे या कुछ को भगा दिया जाता था। ऐसे लडकों की परवरिश यानी भोजन, निवास, वस्त्र आदि के साथ की उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करना भी बेहद जटिल कार्य था। यहां केवल लडकों के रखे जाने की ही प्रबन्ध था, क्योंकि प्रशासन से केवल इसी कार्य की अनुमति मिली थी या कि 10 वर्ष से बडे लडकों के आश्रम का ही पजींकरण 2012 में हुआ था।
किन्तु एक और विकराल समस्या की ओर श्री आंेकार सिंह का ध्यान गया। 10 वर्ष से 18 वर्ष तक के लडकों की परवरिश का प्रबन्ध तो हो गया था, किन्तु नवजात शिशु से लेकर 10 वर्ष तक के लडकों व लडकियों की देखभाल का कोई सुचारू प्रबन्ध नहीं था। कुछ सरकारी अनाथालयों का सर्वेक्षण जब ओंकार सिंह ने किया तो उन बच्चों की दुर्दशा देखकर इनका मन भर आया। तब 2015 में इन्होंने ’’भरतपुरिया शिक्षा समिति’’ के बैनर तले ही ’’घरौंदा शिशु आश्रय गृह की स्थापना कीं इसका पंजीकरण कराने के उपरान्त जीरो (0) से दस वर्ष तक के लडकों व लडकियों को साथ रखे जाने के लिए अलग से भवन तथा स्टाफ के प्रबन्ध की समस्या थी। तब तीसरी बिल्डिंग किराये पर ली गई और नवजात शिशु से 10 वर्ष तक के बच्चों के पालन-पोषण तथा उनकी भी शिक्षा व्यवस्था को संभाला गया।
’’घरौंदा शिशु आश्रय गृह ते सुचारू रूप से चलने लगा, किन्तु अब समस्या खडी हुई कि इस प्रकार के बच्चों की संख्या निरंतर बढने लगी। इनमें भी ज्यादा संख्या लडकियों की ही थी, जिन्हें कहीं फेंक दिया गया या चुपचाप कहीं छोड दिया गया। ओंकार सिंह ने पुनः संघर्ष किया तथा शासकीय स्तर पर इन बच्चों को गोद दिये जाने के लिए भी ’’घरौंदा’’ को पंजीकृत कराया। इस प्रकार ’’घरौंदा विशेषज्ञ दत्तक ग्रहण अभिकरण’’ के रूप में यह स्वप्न भी साकार हो गया। निश्चित रूप से ’’घरौंदा’’ तथा ’’एल.बी.एस. आश्रम’’ को संचालित करने में, आप सब गणमान्य महानुभावों से ’’भरतपुरिया शिक्षा समिति’’ ओंकार सिंह सभी केयर टेकर स्टाफ तथा स्वयंसेवी कार्यकर्ता आप सभी के बहुत आभारी हैं। यही कारण है कि आप सभी के सहयोग से 28 बच्चों को उनके अभिकरण से दत्तक माता-पिता को गोद दिया जा चुका है। सभी बच्चे बेहद शिक्षित व संभ्रात घरों में गये हैं।